Thursday, April 19, 2018

स्नेहज से मुलाक़ात

ये हैं स्नेहज। कथाकार शेखर मल्लिक और ज्योति मल्लिक के साहबजादे। जब भी कोई कार्यक्रम होता है तो इनकी मस्ती देखते ही बनती है। काफी चंचल। प्यारे दुलारे। अभी अपने नाम का उच्चारण ये ठीक से नहीं कर पाते हैं। लेकिन किस क्लास में पढ़ते हैं, उसका जवाब इन्होंने तपाक से दिया- नलछली। समझ गए न? जी हां- नर्सरी में पढ़ते हैं। घाटशिला में एक आयोजन के बाद मेरे मोबाइल कैमरे और इनके बीच ठन गई। इन्हें जब पता चल जाता है कि कोई फोटो ले रहा है, तो स्थिर नहीं रहते। अगर फोटो लेने वाला जिद पर अड़ा तो ये अपना चेहरा हाथों से छिपा लेते हैं। अभी भोले-भाले हैं, जानते नहीं कि फोटो खिंचवाने के लिए दुनिया के महारथी आजकल कितना बेचैन रहते हैं। जैसे ही इन्हें पता चला कि मैं फोटो ले रहा हूं, वैसे ही इनकी चंचल अदाएं शुरू हो गईं। खैर, बाद में मैं कुछ स्नैप लेने में सफल हो गया।  

 




Friday, June 26, 2015

स्वच्छ्ता एक नैसर्गिक चाह



इन तस्वीरों का सम्बन्ध न किसी ज़माने में 
लालू यादव द्वारा किए गए गरीबों के बाल काटने और नहवाने के ड्रामे से है 
और न ही मोदी के स्वच्छता अभियान से. 
ये तस्वीरें मोदी के स्वच्छता अभियान के ड्रामे से पहले की हैं.
ये बताती हैं कि स्वच्छ्ता एक नैसर्गिक चाह है, 
किसी राज्यादेश से इसका रिश्ता नहीं होता. 
इसमें शशांक पूरे ध्यान से अपने दोस्त के बालों से कीड़े निकाल रहे हैं. 
और दोस्त को भी इस सफाई और प्यार से सुकून मिल रहा है, ऐसा लगता है. 








मेरा फुटबॉल




एक गेंद की तरह
क्या मैं अपने बच्चों के साथ
एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूँ?
-आलोक धन्वा 


मेरा फुटबॉल है. रोज सुबह खेलता हूँ.
इसकी मेरे पैरों से अच्छी दोस्ती है.
यकीन नहीं तो मुझसे छीन कर देखिए.
मेरे साथ खेलना है तो खेलिए
वर्ना जाइए कहीं बैठकर कविता लिखिए 




तो इसे ही योगासन कहते हैं.

तो इसे ही योगासन कहते हैं. जिसको टीवी पर खूब दिखाया गया था ! 
इसमें कौन से बड़ी बात है.
इसे तो मैं भी करता हूँ पापा के साथ, जब मन करता है. 
मगर मुझे तो किसी ने टीवी पर बुलाया ही नहीं. 
चलो कोई बात नहीं. 
बड़े लोगों की बड़ी बातें. 
वैसे मेरा नाम शशांक है. 




Saturday, March 7, 2015

शशांक के नए दोस्त


इस होली में शशांक गांव गए, तो उन्हें कई नए दोस्त मिल गए. घर के बगल में एक कुतिया ने 6 बच्चे दिए थे. बुलाने पर वे घर के आँगन में चले आते थे. उन्हीं बच्चों के साथ वे खेलते रहे. इस अप्रैल में शशांक महाशय 3 साल के हो जाएँगे. ये मेरे भतीजे हैं.








ये रहा चौथा, दो अभी बाकी हैं 


ये पट्टा मुझे दे दे ठाकुर 

Thursday, December 11, 2014

कैद : ऐसा फिलीम मैंने आज तक नहीं देखा


तीन बाल दर्शकों के साथ अपने ननिहाल में जनसिनेमा द्वारा निर्मित ‘कैद’ फिल्म मैंने दुबारा देखी। चमत्कारी गजेट वाले एनिमेटेड चरित्रों, हिंदू मिथकीय पुनरुत्थान और सांस्कृतिक-सामाजिक टकरावों को नए संदर्भों में प्रतिबिंबित करने वाले नन्हें योद्धाओं, मुंहफट, असभ्य व अशालीन जुबान और हरकतों वाले जापानी व अन्य विदेशी एनिमेशन धारावाहिकों के बच्चों, बेहद हिंसक टकराव में लगे बिल्ले, बंदर और काक्रोच वाले टीवी सीरियलों या टीवी चैनलों पर पापुलर बंबइया फिल्म या फूहड़ हास्य को देखने के आदी हो चुके बच्चे क्या मेंटल स्ट्रेस के कारण हिंसक हो चुके और एक कमरे में कैद कर दिए गए एक ऐसे बच्चे की कहानी को शुरू से अंत तक दिलचस्पी से देख पाएंगे, जिसे शिक्षक, सहपाठी, अभिभावक और पूरा समाज पागल समझने लगा है, जिसे उसके हिंसक रवैये और अंधविश्वास के कारण अभिभावकों ने घर के छत पर एक कमरे में कैद कर दिया है, यह सवाल मेरे जेहन में था। 

तो साहब बच्चों ने एकाग्रचित्त होकर पूरे 110 मिनट की फिल्म देखी। बीच में उनकी नजर स्क्रीन से जरा भी नहीं हटी। हां, फिल्म के पहले हिस्से में उन्होंने सवाल जरूर किए कि संजू कमरे में क्यों बंद है, क्यों वह लोगों को दांत काटता है, क्यों हमले करता है? जब उसे तांत्रिक के पास ले जाया गया तो उन्हें लगा कि शायद भूत-वूत का चक्कर है, क्योंकि यही समझ बच्चों को विरासत में मिलती है। वे जिद करते रहे कि मैं बता दूं कि संजू की ऐसी हालत क्यों है। मैंने कहा कि मैं बता दूंगा तो फिल्म देखने का मजा खत्म हो जाएगा, फिल्म में यह खुद ही पता चल जाएगा। खैर, जैसे ही फ्लैश बैक के दृश्यों में बच्चों ने हिंदी की शिक्षिका और गणित के शिक्षक का संजू के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार देखा और टूर में जाने से मना कर देने पर उसे दुखी देखा, तो वे उसके गुस्सैल और हिंसक प्रतिक्रिया की वजह समझ गए। शिक्षकों द्वारा संजू को डांटने और बेंच पर खड़ा किए जाने को भी उन्होंने नोट किया। 

यह संयोग है कि इन तीनों बाल दर्शकों के पिता असमय गुजर चुके हैं। अंशु और अनीश भाई हैं और खुश्बू इनकी चचेरी बहन है। अनीश और खुश्बू ने ‘तारे जमीन पर’ नहीं देखी है, अंशु ने उसके कुछ दृश्य ही देखे हैं। तीनों का पारिवारिक परिवेश लगभग उसी तरह का है, जैसा संजू का है। 

फिल्म खत्म होने के बाद मैंने उनकी राय जाननी चाही। तो तीनों ने कहा कि फिल्म उन्हें अच्छी लगी। मैंने कहा कि लिखकर दो कि क्यों अच्छी लगी। तो इसकी पहल अनीश ने की, उन्होंने एक पृष्ठ के तीन हिस्से किए और सबको लिखने को दिया। मानो प्रतिक्रिया लिखने के लिए इतना स्पेस काफी हो। अनीश कक्षा दो के छात्र हैं। दो वर्ष पूर्व अचानक एक दिन उनके द्वारा किए रेखांकन देखकर मैं चौंका था और उसे फेसबुक पर लगाया था।
अनीश ने लिखा- मैंने कैद फिलीम देखा। इस फिलीम में संजू का रोल अच्छा लगा। ऐसा फिलीम मैंने आज तक नहीं देखा। इसमेें हिंदी शिक्षिका ने उसे बीस दिन तक बेंच पर खड़ा किया।
जान लीजिए कि अनीश की उम्र कुल जमा नौ साल है. 

मैंने पूछा कि इस फिल्म से क्या शिक्षा मिली? फिर मुझे लगा कि बड़ा परंपरागत सवाल है, तो मैंने सवाल को बदला कि इस फिल्म से किसको शिक्षा मिली- संजू को, शिक्षक को या गार्जियन को? बच्चों का जवाब था कि गार्जियन को। अनीश ने लिखा कि इससे यह शिक्षा मिलती है कि परिवार को किसी बच्चे को बंद नहीं करना चाहिए। 

खुश्बू भी कक्षा 2 में ही पढ़ती हैं। उन्होंने मात्र दो पंक्ति ही लिखी, फिल्म को अच्छा बताया और उसमें हिंदी की शिक्षिका द्वारा संजू को दंडित किए जाने को रेखांकित किया। मैंने पूछा कि लेकिन फिल्म अच्छी क्यों लगी, तो वह चुप रहीं। फिर बहुत कुरेदने पर उन्होंने कहा कि संजू को कोई प्यार नहीं करता, न शिक्षक और न दूसरे छात्र, इसलिए वह सबको काटता है, मारता है, गुस्से में रहता है। मैथ का टीचर उसकी काॅपी चेक नहीं करता। संजू का रोल बहुत अच्छा था। हां, खुश्बू की नजर में वह आदमी भी बहुत अच्छा था, जो उसे कमरे से बाहर निकालता है।

अंशु कक्षा पांच के छात्र हैं। उन्होंने लिखा कि संजू जो लड़का था न, वह पागल नहीं था, लेकिन सब टीचर उसे पागल समझते थे। मैथ टीचर उसकी नोटबुक चेक नहीं करते थे, इसलिए उसने अपनी नोटबुक फाड़ दी। उसकी हिंदी की मैम उसे टूर पर नहीं ले गई, कि वह शैतानी करेगा। जबकि उसने मैम से कहा था कि वह शैतानी नहीं करेगा, पर मैम नहीं मानी, उसे टूर पर नहीं ले गई। फिर उसे वह आदमी मिला, जिसने उसकी मदद की। फिर धीरे-धीरे संजू ठीक होता गया। 

बीच-बीच में अंशु और अनीश की माता जी हमारे खाने-पीने के लिए भी कुछ-कुछ ला रही थीं और फिल्म की कहानी पर भी उनकी नजर थी। फिल्म के अंत में संजू की मां जब उसे छत पर सामान्य हरकतें करते, खिलखिलाते देखती है, तो उनकी आंखों में ढेरों सवाल है, लेकिन उसे आजाद कराने वाले युवक, जो कि बच्चों के दिमाग पर असर डालने वाली घटनाओं का अध्ययन करता था, जिसे संजू के स्कूल में पढ़ाने के दौरान उसकी बीमारी की असली वजह पता चलती है, के पास यही जवाब है कि संजू पर विश्वास करो। संजू की मां द्वारा नीचे चलकर चाय पीने के आग्रह पर युवक कहता है कि जिस दिन वे संजू को स्कूल भेजने लगेंगी और ढोंगी आस्था के प्रतीक यानी तांत्रिक द्वारा दिए गए जंतर को दिल-दिमाग से उतार फेंकेंगी तो वह चाय भी पीएगा और खाना भी खाएगा। उसके बाद हमारे बाल दर्शकों की माता जी ने कयास लगाया कि संजू की मां जंतर को जरूर उखाड़ फेंकेगी। और फिल्म में संजू की मां ने कमरे के दरवाजे पर टंगे जंतर को नोच कर फेंक दिया।

चलते-चलते बता दूं कि यह फिल्म अंधविश्वास निमूर्लन आंदोलन के नेतृत्वकारी शहीद नरेंद्र दाभोलकर की स्मृति को समर्पित है, जिनकी पिछले साल सांप्रदायिक हिंदूत्वादियों ने हत्या कर दी थी। 

Thursday, May 30, 2013

शशांक की कलाएं
हाँ जी ये शशांक है, पर घटने बढ़ने वाली चाँद की कला से इनका कुछ लेना देना नहीं. ये तो निरंतर बढ़ने वाले शशांक हैं. पिछले ४ अप्रैल को उम्र का पहला पड़ाव पार कर चुके हैं. आइए देखिए इनकी अदाओं को
देखो मेरे दांत अब लीची के छिलके काट सकते हैं 
ये मैं हूँ शशांक, समझे 

लो मेरे दांत भी देख लो 

वाह लीची भी क्या चीज है!

फोटो खीचना है तो खिचिए न!


हूँ............सब कुछ समझ रहा हूँ 

 मैं भी हूँ 

जरा ठीक से फोटो खींचो, बड़ी गर्मी है, बिजली भी नहीं है 

अले देखो ये मेरे बड़े पापा हैं, लोज  (रोज ) क्यों नहीं आते ?

अले पापा जी इतना खुश क्यों हैं 

अच्छा तो ये फिर चले जायेंगे !